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पीपली लाइव : मूवी रिव्यू

 

फिल्म पीपली लाइव




फिल्म पीपली लाइव भारत की चकाचौंध वाली तस्वीर से अलग एक गांव की तस्वीर बयां करती है। सीनेमेटोग्राफी का शानदार प्रदर्शन करते हुए गांव के दृश्य को अच्छे से पर्दे पर दर्शाने की कोशिश की गई है।

कहानी की शुरूआत होती है गांव में रहने वाले दो किसान भाईयों, बुद्धिया और नत्था से। उनकी जमीन निलाम होने की कगार पर रहती है, कर्ज न चुका पाने की वजह से। अपनी जमीन को निलामी से बचाने के लिए वो लोग गांव के नेता से मदद मांगने पहुंचते है। नेता बातों ही बातों में कह देता है कि आत्महत्या करने वाले किसानों को सरकार योजना के तहत 1 लाख रूपया देता है। फिर क्या था बुद्धिया और नत्था को अपनी जमीन बचाने और परिवार का पालन करने का यह एक उपाय सूझता है। दोनों भाईयों में विचार विमर्श होता है फिर नत्था अपनी जान देने के लिए तैयार होता है।


नत्था के आत्महत्या की खबर पाते ही गांव का एक स्ट्रिंगर (पत्रकार) इसे अपने अखबार में छपवा देता है। यह बात इतनी तूल पकड़ती है कि मैन स्ट्रीम मीडिया नत्था के गांव, घर पहुंच जाती है। मीडिया नत्था की लगातार कवरेज कर उसे स्टार बना देता है। कुछ ही समय बाद चुनाव भी आने वाला रहता है। वहां की राजनीतिक पार्टियां नत्था के आत्महत्या पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लगती है।


क्या नत्था आत्महत्या करेगा ? या आत्महत्या की खबर मात्र से ही उसकी जमीन निलाम होने से बच जाएगी ? राजनीतिक पार्टियां किस तरह से उसकी मदद करेंगी ?और पहली बार टीवी पत्रकारिता दिखाने की डायरेक्टर की कोशिश कितनी रंग लाती है ? मीडिया इस मामलें को कैसे कवर करता है ? तमाम सवालों के जवाब जानने के लिए आप 2010 में बनी फिल्म पीपली लाइव देखिए।


जिसे डायरेक्ट किया है अनुशा रिजवी ने और प्रोड्यूसर है आमीर खान व किरण राव। बुद्धिया का रोल प्ले किया है रघुवीर यादव ने और ओमकार दास मणिकपुरी ने नत्था का किरदार अभिनय किया है।  रमेश के रूप में अभिनय किया है नवाजुदीन सिद्दकी ने । अब देखना ये होगा कि क्या दोनों किसान पात्र अपने अभिनय से दर्शकों की सहानुभूति प्राप्त कर पाते है या सिर्फ एक हंसी का पात्र बन कर रह जाते है?


डायरेक्टर ने व्यंग और कॉमेडी के माध्यम से गांव के गरीब किसानों की हत्या, उनकी स्थिती और उनकी जिंदगी के बारे में बताने की कोशिश की है। फिल्म के अन्य पहलूओं की बात करें तो फिल्म के गाने लोकल टच के साथ फिल्म को दमदार बनाते है। इसके अलावा मीडिया किस तरह से टीआरपी के लिए किसी के मौत का तमाशा बनाती है इसे भी दिखाने की कोशिश की गई है। फिल्म की एंडिंग किसानों के जीवन के बारें में लोगों को सोचने पर मजबूर करती है।


अंत में बस इतना ही कहना है -किसान का किसानी छूट जाना और एक मजदूर बन जाना, एक किसान की मौत ही है। साल 1991-2008 के बीच 8 मिलियन किसानों ने किसानी छोड़ मजदूरी अपना ली, मजदूर बन गए। सरकार को किसानों की स्थती में सुधार लाने के लिए सरकारी योजनाओं के जमीनी स्तर पर कार्यन्वयन की जरूरत है।

 

 

   

Comments

  1. लिखने की शैली अच्छी पर
    शब्दों को सही तरीके से लिखो तो काफी सही रहेगा.

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