सुनीता कुमारी
“सिर से छत भी गई फिर रोजगार भी गया इसके बाद हम लावारिस हो जाएंगे” यह कहना है रमेश का। ऐसा कहने के पीछे क्या वजह है और कौन है ये रमेश ? दरअसल रमेश और उसकी पत्नी सुनीता सरोजिनी नगर की झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले श्रमिक हैं । दोनों मिलकर वहां इस्तरी का काम करते हैं। रमेश कपड़ों को धोता है और उनकी पत्नी उन कपड़ों में इस्तरी करती है।
सब कुछ ठीक चल रहा था पर अचानक से उनकी रोजी- रोटी और मकान पर संकट आ गया। रोटी, कपड़ा और मकान जीवन जीने के लिए बेहद जरूरी है। रमेश और सुनीता जैसे 200 श्रमिकों, मजदूर परिवारों के सामने अपने रोजगार को लेकर प्रश्नचिन्ह खड़ा हैं कि क्या उनका रोजगार उनसे छिन जाएगा ? अगर हां तो फिर वे आगे क्या करेंगे? क्या उनके सिर पर छत रहेगी या नहीं ? आगे की जिंदगी कैसे चलेगी?
ये घटना है दिल्ली के सरोजनी नगर की। दरअसल सरकार सरोजनी नगर की झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ कर वहां बड़ी-बड़ी कॉम्प्लेक्स बिल्डिंग बनाना चाहती है। वहां लगभग ऐसी 200 झुग्गी झोपड़ियां है जिनके टूटने से करीब 1000 लोगों के जीवन पर असर पड़ने वाल है । इन झोपड़ियों में रहने वाला कोई रिक्शा चालक, कोई धोबी, कोई मोची,कोई ऑटो चालक तो कोई दिहाड़ी मजदूर है। इन श्रमिकों या मजदूरों के बेटों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जिसमें अपील की गई कि झुग्गी झोपड़ियों को ना तोड़ा जाए। तोड़ा भी जाए तो पहले उन्हें कहीं रोजगार और पुनर्वास की व्यवस्था कराई जाए । दायर याचिका के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 2 मई तक इनकी झोपड़ियों को ना तोड़ने का आदेश दिया है। लेकिन 2 मई का समय दूर नहीं। वहां रहने वाला हर श्रमिक व मजदूर को अपने घर और रोजगार की चिंता सता रही है। इन्हीं चिंताओं को लेकर हमने रमेश और सुनीता से बात की।
सुनीता और रमेश सरोजिनी नगर की झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले श्रमिक है। दोनों मिलकर इस्तरी का काम करते हैं। रमेश कपड़ों को धोते हैं और उनकी दिव्यांग पत्नी उन कपड़ों को इस्तरी करती है। सरोजनी नगर के मार्केट के दुकानदारों के साथ उनका संपर्क रहता है। वह प्रतिदिन डेढ़ सौ कपड़ों को इस्तरी करती है। हर कपड़े के लिए उन्हें मेहनताना तीन रूपए मिल जाते हैं। दोनों पति-पत्नी मिलकर यह काम लगभग 25 सालों से कर रहे हैं।उन्होंने यह रोजगार सौ रूपए से शुरू किया था। अपनी मेहनत और अच्छे स्वभाव के कारण आज भी दोनों मिलकर इस काम को कर रहे हैं। इसी काम को करते करते उन्होंने अपनी बेटी की शादी भी करवाकर अपने बेटे को पढ़ाया और लिखाया भी है लेकिन आज उनके सामने अपने घर और रोजगार दोनों को लेकर संकट खड़ा है कि वो अपनी दिव्यांग पत्नी के साथ कहां भटकेंगे और क्या करेंगे ?
सुनीता मूल रूप से राजस्थान की रहने वाली है। जब उनसे वापस लौट जाने के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा "एक तो मेरे विकलांग होने के कारण मुझे आने-जाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दूसरा मैं राजस्थान के जयपुर जिले के एक ऐसे गांव से आती हूं जहां पर कुछ भी मूलभूत सुविधाएं नहीं है। पानी की समस्या है, बहुत दूर से लाना पड़ता है। अपनी विकलांगता के कारण मैं पानी भी नहीं ला सकती। वहां सार्वजनिक शौचालय भी नहीं है अगर कहीं है भी तो हमें नहीं जाने दिया जाता वहां छुआछूत अब भी माना जाता है।" इसलिए वह अपने गांव भी वापिस जाना नहीं चाहती हैं।
"काम गया तो कुछ नहीं और काम है तो समझो भगवान है।" यह कहना है रमेश का जो अपने काम को ही पूजा समझते है और उसे ही भगवान भी मानते है। देश के निर्माण में इन श्रमिकों का अहम योगदान रहता है । सरकार को इनके बारे में सोचने की जरूरत है।
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