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खेती में फिर से लौट रहे हैं पशुओं के अच्छे दिन...

                                       


हाल के वर्षों में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में बैलगाड़ी के उपयोग को पुनर्जीवित किया जा रहा है। जैविक खेती और पशुओं के उपयोग को समझते हुए वैज्ञानिक इस पर तरह-तरह के नए प्रयोग कर रहे हैं। भारत जैसे देश में इस संशोधित परंपरा या तकनीक को अपनाए जाने की संभावनाएं ज्यादा है क्योंकि मशीनीकरण ने मुख्यरूप से  बड़े किसानों को लाभ पहुंचाया है। वही दो हेक्टेयर से कम जोत वाले छोटे और सीमांत किसानों के लिए ट्रैक्टर एक महंगा सौदा है। इसके अलावा पशुओं से खेती करने के और भी फायदे सामने आ रहें हैं।

बिजली बनाने वाली बैलगाड़ी


कर्नाटक के रायचूर में स्थित कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय ने एक ऐसी बैलगाड़ी बनाई है जो आवाजाही से बिजली उत्पन्न करती है। 2014 में  बनी यह बैलगाड़ी हर बार चलने पर बिजली उत्पन्न करती है, जो गाड़ी के नीचे रखी बैटरी में संग्रहित हो जाती है। इससे 5 घंटे में 2,192.4 करोड़ किलोवाट वार्षिक ऊर्जा उत्पन्न कर सकते हैं। वर्तमान में इस क्षमता का केवल 25% ( 426.3 करोड़ किलोवाट) इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि एक जानवर का औसत उपयोग दिन में 1 घंटे से भी कम किया जा रहा है। यदि क्षमता का पूर्ण उपयोग किया जाता है। तो ड्रॉट पशु (पालतू पशु) देश के शुद्ध बोए गए क्षेत्र के 44% हिस्से की बिजली जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। जो वर्तमान में  लगभग 20% है।



हर साल  600 करोड़ टन माल ढुलाई में बैल सहयोगी


कर्नाटक के रायचूर जिले में ऑल इंडिया कोर्डिनेट रिसर्च प्रोजेक्ट (एआईसीआरपी) के 9 केंद्रों में एक कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय ने बैलों के कुशल उपयोग के लिए कई अन्य उपकरणों  को विकसित किया है। बैल गाड़ियों की माल ढुलाई क्षमता को ध्यान में रखते हुए उसके डिजाइनों में ऐसे सुधार किए जाते है जो उसे और उपयोगी बनाए। एआईसीआरपी ने 2014 में 1.2 करोड़ बैल गाड़ियों को सेवा में होने का अनुमान लगाया था। इसे हर साल लगभग 600 करोड़ टन माल ढुलाई होती थी। जो कि भारतीय रेलवे की माल ढुलाई क्षमता का लगभग 6 गुना है। जिसने 2021 में लगभग 103 करोड़  टन का भार उठाया था। 


कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कम करने में बैल सहयोगी


भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के तहत भोपाल स्थित केंद्रीय कृषि इंजीनियरिंग संस्थान द्वारा दिसंबर 2018 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ड्रॉट पशु के पूर्ण उपयोग से कृषि क्षेत्र के जीवाश्म ईंधन व्यय को 60 हजार करोड़ रूपये  तक कम किया जा सकता है। अगर किसानों के पास उपलब्ध 3.077 करोड़ बैलों को काम पर लगा दिया जाए तो कृषि क्षेत्र अपने कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को 1 वर्ष में 1.3 करोड़ टन तक कम कर सकता है। उत्सर्जन में यह कमी लगभग 3000 कारों के सालाना उत्सर्जन के बराबर है। आईसीएआर 2018 की रिपोर्ट के अनुसार प्रति वर्ष ट्रैक्टर डीजल की खपत दर लगभग 3.25 टन आती है। गौरतलब है कि एक किलो डीजल तीन किलो कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करता है। खेती मेंं पशुओं के फायदों को देखते हुए छोटे और सीमांत किसान इसकी तरफ आकर्षित हो रहे है। जरूरत है केन्द्र और राज्य सरकार को इसे प्रोत्साहित करने की।


 सिंधु घाटी सभ्यता के दौर से शुरू भारतीय कृषि में बदलाव 1967-68 में शुरू हुई हरित क्रांति से आती है। इस क्रांति के कुछ ही समय बाद भारत विश्व  का सबसे बड़ा कृषि उत्पादक देश बन जाता है। खासकर गेहूं और चावल में भारत काफी अग्रणी के रूप में उभरता है। क्रांति से पहले जो काम बैल और इंसान करते थे, वही काम अब ट्रैक्टर, थ्रेसर और हार्वेस्टर करने लगे। नवीनतम कृषि विधियों के तहत किसानों द्वारा अत्यधिक रासायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग किया जाने लगा। इससे फसलों की पैदावार तो बढ़ी लेकिन मिट्टी और फसलों की गुणवत्ता या पौष्टिकता कम होने लगी। जिसका असर लोगों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर के रूप में  दिखने लगा। लोगों को कई तरह- तरह की बीमारियां होने लगी। इन सब समस्याओं को देखते हुए फिर से जैविक कृषि और पशुओं के इस्तेमाल पर बल दिया जा रहा हैं।


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