क्या यूएपीए मानवाधिकारों का हनन कर रहा है?
10 दिसम्बर यानि अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मतलब दुनिया में रहने वाले हर इंसान के अधिकार का दिन। विश्व के लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने और वैश्विक स्तर पर मानवता के खिलाफ हो रहे जुल्मों-सितम पर रोक लगाने के उद्देश्य से हर वर्ष यह दिवस मनाया जाता है।
मानवाधिकारों का निर्माण इसलिए हुआ ताकि हर इंसान सुरक्षित महसूस कर सके, स्वतंत्रता से जीवन व्यतीत कर सके, भेदभाव से दूर रहे और बिना किसी हिंसा के शांतीपूर्ण जीवन बिता सके।
लेकिन वर्तमान समय में जिस तरह गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम(यूएपीए) के तहत गिरफ्तारियां हो रही हैं, सवाल उठता है कि भारत सरकार का यह कानून मानवाधिकारों की कितनी रक्षा करता है? क्या यूएपीए कानून का दुरूपयोग किया जा रहा है?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार 2016-2019 के बीच यूएपीए की विभिन्न धाराओं के तहत कुल 4,231 प्राथमिकी दर्ज की गई। जिसमें से केवल 112 मामलों में ही अपराध सिद्ध हो सका। यानि दोषसिद्धि की दर 2.5% है।आकड़े यह दिखा रहे हैं कि गिरफ्तारियां ज्यादा, लेकिन दोषसिद्धि कम है। तो क्या लोगों को गलत तरीके से गिरफ्तार किया जा रहा है? अगर हाँ तो इस कानून में संशोधन की जरूरत है।
लोग अपनी बात कहने में कितना सुरक्षित महसूस कर रहे है? पिछले साल ( 2020) फरवरी में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के विरोध के दौरान दिल्ली में हिंसा फैल गई । इस हिंसा के आरोप में यूएपीए के तहत तीन कार्यकर्ताओं (देवांगना कलिता, नताशा नरवाल, और आसिफ इकबाल तन्हा) को गिरफ्तार किया गया। इस मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसी साल 22 मई को उन तीनों आरोपियों को जमानत देने का फैसला सुनाय। इस फैसले को दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। ध्यान देने वाली बात ये है कि ये आरोपी बिना किसी मुकदमे के 1 वर्ष से अधिक समय से जेल में थे। बिना कोई अपराध सिद्ध हुए 1 वर्ष से अधिक समय तक जेल में रहना, इस कानून पर सवाल उठाता है।
मानवाधिकारों से जुड़े “स्वतंत्रता से जीवन व्यतीत करने के अधिकार” पर यूएपीए कानून कितना खड़ा उतरता है? यूएपीए के साथ सबसे बड़ी समस्या इसकी धारा 43(D)(5) में निहित है। यदि पुलिस किसी व्यक्ती के खिलाफ यूएपीए के अंतर्गत आरोप पत्र दायर करती है और यह मानने के लिए उचित आधार है कि प्रथम दृष्टया आरोप सत्य है तो व्यक्ति को जमानत मिलना मुश्किल होता है, जबकि जमानत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की सुरक्षा और गारंटी है।
इस तरह कानून का दुरूपयोग और मानवाधिकारों का हनन न केवल भारत में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी हो रहा है। रूस और ब्राजील में हयूमन राइट्स वाॅच द्वारा रिपोर्ट में एशियाई- विरोधी भेदभाव से जुड़े कई मामले सामने आए हैं। न्यूजीलैंड में, न्यूजीलैंड मानवाधिकार आयोग द्वारा पिछले महीने जारी किए गए शोध में पाया गया कि 54% चीनी उत्तरदाताओं ने कोविड -19 महामारी की शुरुआत के बाद से भेदभाव का अनुभव किया था।
इस तरह उपरोक्त तथ्यों और आकड़ों को देखने के बाद यह सवाल उठता है कि क्या "अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस" सिर्फ एक दिवस के रूप में चर्चा का विषय बन कर रह जाएगा? जरूरत है अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने की, और उन अधिकारों के माध्यम से अपने अस्तित्व को बचाने और भेदभाव को रोकने की।
भारत में 28 सितम्बर 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया और 12 अक्टूबर 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया।
Wahh Neha tum toh writer bn hai ho 🎉🎉
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Deleteabhi writer bani nhi hu ,bs likhna start kiye h
DeleteWell done👍💫💫
ReplyDeletethank u Adarsh
DeleteVery very nice
ReplyDelete👌👍
ReplyDeleteNice is too good
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ReplyDelete👍
ReplyDeleteक्या खूब कलम चलाई!
ReplyDeleteThat's Great...👌👌👌
ReplyDeleteThat's Great...👌👍
ReplyDelete👏👏👏👏
ReplyDelete"Amazing write -up"
ReplyDeleteVery good skill
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा और तथ्यपरक आलेख है ।
ReplyDeletedhanyaad Ravendra
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